
“क्या राष्ट्रपति की राय किसी निर्णय को बदल सकती है?” शीर्षक वाला यह लेख राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा हाल ही में संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय की परामर्शीय क्षेत्राधिकार की अपील के संदर्भ में उत्पन्न संवैधानिक मुद्दे की पड़ताल करता है। यह मामला 8 अप्रैल के उस विवादास्पद निर्णय से जुड़ा है जिसमें तमिलनाडु सरकार की याचिका के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि राज्य विधानमंडल द्वारा दोबारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल आर.एन. रवि की निष्क्रियता अवैध है, और यह कि राज्यपालों और राष्ट्रपति को राज्य विधेयकों पर एक उचित समयसीमा के भीतर कार्रवाई करनी चाहिए। राष्ट्रपति द्वारा प्रस्तुत 14 प्रश्नों वाले इस संदर्भ (Presidential Reference) का उद्देश्य, इस प्रक्रिया में राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका और समयसीमा को स्पष्ट करना है।
लेख बताता है कि यद्यपि राष्ट्रपति अनुच्छेद 143 के तहत न्यायालय से राय मांग सकते हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय इस प्रकार के हर संदर्भ को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं है और वह उचित कारणों के साथ इसे अस्वीकार कर सकता है। न्यायालय की राय केवल पूछे गए प्रश्नों तक सीमित होती है और यह पहले से दिए गए निर्णयों की समीक्षा का उपकरण नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई सलाहकारी राय बाध्यकारी नहीं होती, हालांकि इसका प्रभावशाली नैतिक महत्व होता है। यह बात इन री: स्पेशल कोर्ट्स बिल (1978) और सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य (1974) जैसे मामलों में स्पष्ट की गई है। हालांकि, आर.के. गर्ग बनाम भारत संघ (1981) जैसे कुछ मामलों में ऐसी राय को बाध्यकारी दृष्टांत के रूप में भी माना गया है, लेकिन यह अब भी विवादास्पद है।
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि राष्ट्रपति की राय (Presidential Reference) का उपयोग किसी पूर्व निर्णय जैसे कि 8 अप्रैल के फैसले को पलटने या उसकी समीक्षा करने के लिए नहीं किया जा सकता। कावेरी जल विवाद ट्राइब्यूनल संदर्भ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि अनुच्छेद 143 का उपयोग स्थापित न्यायिक निर्णयों की समीक्षा या निरस्तीकरण के लिए नहीं किया जा सकता। यदि किसी निर्णय की समीक्षा करनी हो, तो इसके लिए न्यायिक पुनर्विचार (judicial review) या करेटिव याचिका (curative petition) ही उचित मार्ग हैं।
हालांकि, कुछ ऐतिहासिक उदाहरण इस सामान्य नियम से थोड़ी भिन्नता दिखाते हैं। उदाहरण के लिए, 1998 में न्यायालय ने न्यायिक नियुक्तियों पर एक संदर्भ का उत्तर देते हुए मौजूदा कोलेजियम प्रणाली की पुष्टि की, बिना किसी पूर्व निर्णय को निरस्त किए। इससे यह संकेत मिलता है कि Presidential Reference भविष्य की व्याख्याओं को प्रभावित कर सकता है, लेकिन यह अतीत के निर्णयों को सीधे अमान्य नहीं करता।
अंततः, इस मामले में राष्ट्रपति द्वारा भेजा गया संदर्भ संवैधानिक प्रक्रियाओं को समझने में कार्यपालिका की सहायता कर सकता है और संदेहों को दूर कर सकता है, लेकिन यह किसी ऐसे निर्णय को निरस्त या परिवर्तित नहीं कर सकता, जो सर्वोच्च न्यायालय ने अपने मूल क्षेत्राधिकार (original jurisdiction) के तहत दिया हो। यह विषय अब भी जटिल बना हुआ है, क्योंकि संपूरक सलाहकार रायों की बाध्यता पर संवैधानिक और न्यायिक स्तर पर मतभेद कायम हैं।
✅ मुख्य परीक्षा के लिए मूल्य संवर्धन (Value Addition for Mains)
अनुच्छेद 143(1): राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय से विधि या तथ्य से संबंधित प्रश्नों पर राय मांगने का अधिकार देता है।
बाध्यकारी प्रकृति: संवैधानिक रूप से विवादास्पद; नैतिक रूप से प्रभावी परंतु बाध्यकारी नहीं।
महत्वपूर्ण प्रकरण (Important Cases): इन री: स्पेशल कोर्ट्स बिल (1978): न्यायालय संदर्भ अस्वीकार कर सकता है।
सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य (1974): परामर्शीय मत बाध्यकारी नहीं।
कावेरी जल विवाद ट्राइब्यूनल (1992): अनुच्छेद 143 का प्रयोग न्यायिक निर्णयों की समीक्षा हेतु नहीं किया जा सकता।
प्राकृतिक संसाधन आवंटन मामला (2012): न्यायालय ने स्पष्ट किया कि परामर्शीय भूमिका न्यायिक पुनरावलोकन नहीं है।
आर.के. गर्ग बनाम भारत संघ (1981): परामर्शीय मत को प्रभावशाली दृष्टांत माना।
📝 UPSC मुख्य परीक्षा प्रश्न
सामान्य अध्ययन पेपर 2 – संविधान और शासन
1. “अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय का परामर्शीय क्षेत्राधिकार संवैधानिक स्पष्टता का साधन है, न कि न्यायिक पुनरावलोकन का माध्यम।” राज्यपालों की शक्तियों और 8 अप्रैल के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर हालिया राष्ट्रपति संदर्भ के आलोक में इस कथन की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
(250 शब्द)
2. संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को संदर्भ भेजने से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों पर चर्चा कीजिए। क्या ऐसे परामर्शीय मत कार्यपालिका और न्यायपालिका पर बाध्यकारी होते हैं?
(250 शब्द)
3. “राष्ट्रपति संदर्भ का उपयोग स्थापित न्यायिक निर्णयों को पलटने के लिए एक गुप्त माध्यम के रूप में नहीं किया जा सकता।” संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के संदर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिए।
(150 शब्द)
4. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए परामर्शीय मतों के न्यायिक और संवैधानिक प्रभावों का मूल्यांकन कीजिए। कावेरी जल विवाद ट्राइब्यूनल और प्राकृतिक संसाधन आवंटन मामलों का उल्लेख कीजिए।
(250 शब्द)
✅ UPSC प्रारंभिक परीक्षा प्रश्न (MCQs)
1. भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
यह राष्ट्रपति को विधि या तथ्य के प्रश्नों पर सर्वोच्च न्यायालय से राय लेने का अधिकार देता है।
अनुच्छेद 143 के अंतर्गत दिया गया परामर्शीय मत सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होता है।
सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति के संदर्भ को उत्तर देने से इंकार कर सकता है। यह राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम निर्णय को पलटने की अनुमति देता है।
उपरोक्त में से कौन-से कथन सही हैं?
A. केवल 1 और 3
B. केवल 1, 2 और 4
C. केवल 1, 3 और 4
D. उपरोक्त सभी
उत्तर: A
2. निम्नलिखित में से किस निर्णय में यह स्पष्ट किया गया कि अनुच्छेद 143 के तहत दिए गए परामर्शीय मत सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी नहीं हैं?
A. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य
B. सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य
C. मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ
D. मेनका गांधी बनाम भारत संघ
उत्तर: B
3. निम्नलिखित में से किस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि अनुच्छेद 143 का प्रयोग स्थापित न्यायिक निर्णयों की समीक्षा या निरस्तीकरण के लिए नहीं किया जा सकता?
A. इन री: केरल एजुकेशन बिल
B. प्राकृतिक संसाधन आवंटन मामला
C. कावेरी जल विवाद ट्राइब्यूनल संदर्भ
D. एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला
उत्तर: C